- by Mamta Saran
- 1 Comment
- 119 Views
1.महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन एवं बुनियादी शिक्षा
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शवादी रहा है। उनका आचरण प्रयोजनवादी विचारधारा से ओतप्रोत था। संसार के अधिकांश लोग उन्हें महान राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक के रूप में जानते हैं। पर उनका यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक मत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः गांधीजी का शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। उनका मूलमंत्र था- ‘शोषण-विहीन समाज की स्थापना करना’। उसके लिए सभी को शिक्षित होना चाहिए। क्योंकि शिक्षा के अभाव में एक स्वस्थ समाज का निर्माण असंभव है। अतः गांधीजी ने जो शिक्षा के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों की व्याख्या की तथा प्रारंभिक शिक्षा योजना उनके शिक्षादर्शन का मूर्त रूप है। अतएव उनका शिक्षादर्शन उनको एक शिक्षाशास्त्री के रूप में भी समाज के सामने प्रस्तुत करता है। उनका शिक्षा के प्रति जो योगदान था वह अद्वितीय था। शिक्षा उन्हें स्वावलंबी बनाये और वे देश मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकें।
वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी, जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस् त भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है।
गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे।
गांधीजी की शिक्षा
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय गांधीजी ने सबसे पहले बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी। आज जिसे विश्वविद्यालय स्तर पर “फाउंडेशन कोर्स” कहा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में गांधी की बुनियादी यानी बेसिक शिक्षा ही तो थी। इस बुनियादी प्रशिक्षण और प्राथमिक स्तर की शिक्षा के दो स्तर थे- स्कूली बच्चे कक्षा-एक से ही तकली से सूत कातते थे। रूई से पौनी बनाते थे और सूत की गुड़िया बनाकर या तो खादी भंडारों को देते थे या बैठने के आसन, रुमाल, चादर आदि बनाते थे। शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुतः व्यावसायपरक था। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘वर्षा शिक्षा योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् 1936 ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।
बुनियादी साक्षरता या लैंगिक समानता की स्थिति
एक नए अध्ययन के अनुसार कम उम्र के ज्यादा से ज्यादा लोग विश्वविद्यालयों की डिग्रियां ले रहे हैं, लेकिन रिपोर्ट बताती है कि जब बात बुनियादी साक्षरता या लैंगिक समानता की हो तो हाल अब भी अच्छे नहीं हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) ने शिक्षा की स्थिति पर अपना एक अध्ययन प्रकाशित किया है। “एक नजर में शिक्षा” में दुनिया भर के देशों में शिक्षा की स्थिति पर गौर किया गया है। विकसिक देशों द्वारा 1960 के दशक में गठिक संगठन ओईसीडी शिक्षा में निवेश किए गए वित्तीय और मानव संसाधन, स्कूलों के सीखने के माहौल, स्कूल और अन्य संगठनों जैसे मुद्दों पर महत्पूर्ण जानकारी देकर स्कूलों और विश्वविद्यालयों की स्थिति को बेहतर करने में सरकारों की मदद करती है। ताकि उन्हें बेहतर और सुलभ बनाया जा सके।
इस रिपोर्ट में सामने आया है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले कम उम्र के लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है। साल 2000 में 26 प्रतिशत छात्र 25 से 34 साल की उम्र के थे। 2016 में यह प्रतिशत बढ़कर 46 प्रतिशत हो गया है। विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए अध्ययन के सबसे आम क्षेत्र व्यवसाय, प्रशासन और कानून हैं और उच्च शिक्षा में 23 प्रतिशत अधिक नौजवान इन क्षेत्रों को चुन रहे हैं।
हालांकि उच्च शिक्षा के लिए विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित जैसे क्षेत्रों को चुनने का औसत कम है। इंजीनियरिंग और निर्माण क्षेत्र में 16 प्रतिशत, विज्ञान, गणित और साख्यिकी में 6 प्रतिशत। यही औसत जर्मनी में उल्लेखनीय रूप से अधिक है। उच्च शिक्षा पा रहे छात्रों में एक तिहाई से भी ज्यादा इनमें से एक क्षेत्र की पढ़ाई कर रहे हैं। हालांकि कम ही लड़कियां इन क्षेत्रों में पहुंच रही हैं।
पहली बार इस अध्ययन में विकास के लक्ष्यों (एसडीजी) को शामिल किया गया है जिसे दुनियाभर के प्रतिनिधियों ने 2015 में तय किया था। इन लक्ष्यों में यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है कि प्रत्येक वयस्क के पास अच्छी शिक्षा के लिए समान अवसर हों। लेकिन इस लक्ष्य को प्राप्त करने में ओईसीडी देशों के बीच “पर्याप्त” असमानताएं हैं। खास तौर पर लैंगिक समानता और साक्षरता के मामले में।शिक्षक अगली पीढ़ी को बेहतर शिक्षा देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी औसत उम्र भी बढती जा रही है। जर्मनी में ये रुझान नहीं दिखाई देता क्योंकि यहां अब भी शिक्षक सभी ओईसीडी देशों की तुलना में सबसे उम्रदराज हैं।
गांधी जी ने शास्त्रीय ढंग से शिक्षा की कोई योजना नहीं दी, फिर भी भारतीय शिक्षा विचारधारा के प्रथत आधुनिक उन्नायक कहे जाने का अधिकार इन्हें ही है। गांधी जी की शिक्षा का सर्वप्रथम लक्ष्य व्यक्ति का प्रकृति-वैषम्य या उसके स्वभावों की वि तियों को दूर करना था। उसे मानवीय आचरणों की नयी जीवन-प्रणाली प्रदान करनी थी। इसी को गांधी जी ने चरित्र शिक्षा का नाम दिया। इस व्यापक दृष्टिकोण से गांधी जी ने शिक्षा को व्यक्ति के संपूर्ण संभावित विकास का साधन, माध्यम तया प्रक्रिया माना।
वह बच्चों के लिए दैहिक, मानसिक तथा नैतिकता का समन्वित विकास चाहते थे। शिक्षा केवल साक्षरता प्रदान करने तथा बहुत से विषयों का ज्ञान दे देने से ही पूरी नहीं हो जाती। ऐसी शिक्षा का जीवन के साथ कोई संबंध नहीं रहता। शिक्षा तभी सफल होती है, जब ज्ञान व्यक्ति के विचारों तथा उसकी कर्मठता को, उसके संपूर्ण आचरणों को, इस प्रकार प्रभावित, परिमाजिर्त तथा संगठित करता रहे, जिससे कि मानव कल्याण की सच्ची उपलब्धि हो सके।
इस तरह महात्मा गांधी ने शिक्षा को केवल आर्थिक उपलब्धि तक ही सीमित मान लेना, एक महान नैतिक भूल समझा। यद्यपि, हस्तशिल्पों की शिक्षा से गांधी जी ने निश्चित आर्थिक लाभ की भी कामना की थी. उन्होंने ‘आर्थिक शिक्षण’ को ‘जीवन-शिक्षण’ का एक अनिवार्य अंग माना था. आर्थिक उपयोगिता के प्रति उनके दो दृष्टिकोण थे -‘1. आर्थिक दृष्टिकोण’ 2. ‘चारित्रिक दृष्टिकोण’
आर्थिक रूप से गांधी जी ने विद्यार्थी को, विद्यालय को, समाज को, तथा पूरे राष्ट्र को आत्मनिर्भरता की दृढ़ पृष्ठभूमि प्रदान करने की बात सोची थी. भारत जैसे अभावग्रस्त देश में शिक्षा की यह परिकल्पना, निश्चित रूप से एक महानतम राष्ट्रीय परिकल्पना है. चरित्र की दृष्टि से, महात्मा गांधी ने बच्चों एवं अभिभावकों को आस्थावान, कर्मठ, आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, सहयोगशील, सत्यनिष्ठ, अहिंसक तथा प्रिय-आचरणशील बनाने की बात सोची थी।
गांधी जी के निम्न सुझाव महत्वपूर्ण हैं
िक्षा, रचना, व्यवस्था और विकास के लिए गांव को इकाई माना जाये। इस दृष्टि से योजना बनायी जाये कि उस पर अमल करने के लिए गांव, परिवार को जिम्मेदार माना जाये। लक्ष्य यह हो कि हर परिवार के पास खेती, पशुपालन, उद्योग या अन्य कोई जीविका का स्थायी साधन उपलब्ध होय ताकि बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति न रह जाये. इसमें सरकार मदद देने का काम करे।
लोक शिक्षण, जीवन और विकास से संबंधित पाठ्यक्रम तैयार करने का कार्यक्रम भारत के प्रत्येक गांव और कस्बों में बने। महात्मा गांधी की शिक्षा योजना को प्रयोगशील बनाने का दायित्व सरल नहीं है। यह एक ‘जटिल-जीवन समन्वय’ का प्रश्न है। फिर भी, यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है।
महात्मा गांधी की भारत को जो देन है उसमें बुनियादी शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य है। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, ‘बुनियादी तालीम’ तथा ‘बेसिक शिक्षा’ के नामों से भी जाना जाता है। गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1937 को ‘नयी तालीम’ की योजना बनायी जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार शिक्षाशास्त्रियों के तत्कालीन विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये प्रारम्भ में उनके विचारों का विरोध हुआ।
गांधीजी ने कहा था कि नयी तालीम का विचार भारत के लिए उनका अन्तिम एवं सर्वश्रेष्ठ योगदान है। गांधीजी के जीवन पर्यन्त चले सत्य के अन्वेषण एवं राष्ट्र के निर्माण हेतु सकिय प्रयोगों के माध्यम से लम्बे समय तक विचारों के गहन मंथन के परिणामस्वरूप नयी तालीम का दर्शन एवं प्रक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ जो केवल भारतवर्ष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानव समाज को एक नयी दिशा देने में सक्षम था। परन्तु दुर्भाग्यवश इस सर्वोत्तम कल्याणकारी शिक्षा-प्रणाली का राष्ट्रीय स्तर पर भी समुचित प्रयोग नहीं हो पाया जिसके फलस्वरूप आजतक यह देश गांधीजी के सपनों के अनुरूप सार्थक और सही स्वराज प्राप्त करने में असमर्थ रहा। बल्कि इसके विपरीत आज तो आलम यह है कि शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से भारत पुनः पाश्चात्य साम्राज्यवाद के अधीन निरन्तर सरकता चला जा रहा है।
आज भारत की अधिकांश शिक्षा-व्यवस्था राज्याश्रित अथवा पूंजीपतियों पर आश्रित है। अधिकांश राज्याश्रित शिक्षण संस्थाएँ संसाधन एवं अनुशासन के अभाव में निष्क्रिय हैं। इसलिए गुणवत्ता से युक्त शिक्षा देने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार पूजीपतियों पर आश्रित सभी शिक्षण संस्थाएं व्यावसायिक रूप में सक्रिय हैं, जो गरीबों की पहुंच से बाहर हैं। उनमें सिर्फ सम्पन्न लोगों के बच्चे ही पढ़ सकते हैं। भारत की स्वाधीनता के 60 से अधिक वर्ष बीतने के पश्चात् भी ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है, जिन्होंने विद्यालय के द्वार तक नहीं देखे हैं। जो विद्यालय जाने का सामर्च्य रखते हैं, उन्हें लॉर्ड मैकाले की परम्परा से चली आ रही अंग्रेजी शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। कुल मिलाकर उनमें भारतीय मौलिक शिक्षा को ग्रहण करनेवाले शायद ही कोई मिले। यह बात नहीं कि भारतीय शिक्षा देनेवालों का अभाव है। परन्तु इसलिए कि सभी अभिभावकों में यह इच्छाशक्ति एवं साहस नहीं है कि अपने बच्चों को सरकारों अथवा पूंजीपतियों द्वारा निर्धारित अंग्रेजी शिक्षा को त्यागकर भारतीय शिक्षा दिलावें। जब तक जनसाधारण की इस कायरतापूर्ण मानसिकता में परिवर्तन न किया जायेगा, तबतक नयी तालीम सहित कोई भी भारतीय शिक्षण-प्रणाली इस देश में पनप नहीं सकती। 1940 में श्री चित्त भूषण दासगुप्ता, गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, और ‘नई तालीम’ के अनुगामी, माझिहिरा नाम के एक दूरदराज के गांव (जो पहले विहार अब पश्चिम बंगाल में है) के लिए आये थे, जहां उन्हें, माझिहिरा राष्ट्रीय बुनियादी शिक्षा संस्थान की स्थापना की। उनकी उम्र अभी 100 साल है। अभी भी सरल जीवन का आनंद लेते हुये चरखा का उपयोग करते है।
22-23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में जो ‘अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन’ आयोजित हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। उसके उद्घाटन भाषण में गांधीजी ने अपने शिक्षादर्शन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला। उसके बाद उनकी ‘नई तालीम’ योजना के अनेक पहलुओं पर खुली चर्चा हुई। इस चर्चा में प्रसिद्ध गांधीवादी शिक्षाशास्त्री विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन, सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्तिम दिन निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-
1. बच्चों को ७ वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय।
2. शिक्षा का मध्यम मातृभाषा हो।3. इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंद्रित हो। अन्य सभी योग्यताओं और गुणों का विकास, जहाँ तक सम्भव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से सम्बन्धित हो।
इन प्रस्तावों के पारित हो जाने के बाद डॉ. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया गया जिसे इन प्रस्तावों के आधार पर व्यावहारिक पाठ्यक्रम तैयार करने का काम दिया गया। इन प्रस्तावों के आधार पर एक राष्ट्रीय शैक्षिक योजना तैयार की गयी जो देश भर में ‘नई तालीम’, ‘बुनियादी शिक्षा’ या ‘वर्धा योजना’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
परिचय
सन् 1935 ई. के गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट की घोषणा के फलस्वरूप ब्रिटिश भारत के सात प्रांतों में जब कांग्रेसी सरकारों ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिये कार्यक्रम बनाया तो उसकी चौदह आधारशिलाओं में बुनियादी शिक्षा भी एक आधारशिला थी। गांधी जी बुनियादी शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का एक साधन समझते थे। वे व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के पुनर्निर्माण द्वारा सामाजिक क्रांति लाना चाहते थे। आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता को ही उन्होंने मनुष्य के पूर्ण विकास का आधार माना। वे शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा योजना की स्वी ति के बाद सन् 1938 से ही बुनियादी शिक्षा में अनेक प्रयोग आरंभ हो गए थे किंतु वे अलग अलग और सीमित स्तर पर किए गए। सन् 1939 ई. में द्वितीय महायुद्ध के छिड़ जाने से एक और कठिनाई उपस्थित हो गई। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद ही बुनियादी शिक्षा को शिक्षा की राष्ट्रीय पद्धति के रूप में गंभीरतापूर्वक स्वीकार किया गया।
बुनियादी शिक्षा निरंतर प्रगति करती रही है क्योंकि बेसिक स्कूलों की संख्या बराबर बढ़ती रही है। किंतु साधारण प्रारंभिक और मिडिल स्कूलों की अपेक्षा बेसिक स्कूलों की संख्या की वृद्धि की गति में कमी रही है। अध्यापक शिक्षण की स्थिति भी बिल्कुल संतोषजनक नहीं है। भारत में प्रारंभिक शिक्षकों की शिक्षा के बारे में प्रथम राष्ट्रीय विचारगोष्ठी की 1960 ई. की रिपोर्ट और हाल में अध्यापक प्रशिक्षण के संबंध में प्लान प्रोजेक्ट्स की समिति की 1963 ई. की रिसर्ट से सिद्ध हिला है कि अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम में अनेक त्रुटियों हैं। इसमें न आँचल उचित एवं योग्य कर्मचारियों, भवनों, उपकरणों और अन्य स्थूल साधनों की कमी रही है बल्कि अपर्याप्त पाठ्य विषय और शिक्षण की प्रभावहीन विधि तया शैली का भी दोय रहा है।
बुनियादी शिक्षा की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है जिससे लोग साधारणतया सहमत हों। बुनियादी शिक्षा के वास्तविक मूल तत्व एवं निश्चित लक्ष्य के संबंध में बहुत ही गड़बड़ी दिखाई देती है। गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते समय एक निश्चित सामाजिक व्यवस्था की कल्पना की थी। वह उत्पादक कार्य को शिक्षा का केंद्र मानते थे किंतु वास्तविक प्रयोग में उत्पादक कार्य द्वारा शिक्षा के सिद्धांत के भिन्न भिन्न अर्थ हो गए हैं। कुछ शिक्षाविद्, जो गांधी जी के अनुयायी होने का दावा करते हैं, विद्यालयों में प्रयोग योग्य वस्तुओं के वास्तविक उत्पादन पर जोर देते हैं। कुछ लोगों का मत है कि इसका अर्थ खेल विधि द्वारा शिक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
बुनियादी शिक्षा में आत्मनिर्भरता का प्रश्न और भी विवादपूर्ण है। गांधी जी आत्मनिर्भरता को शिक्षा का वास्तविक मापदंड समझते थे। आत्मनिर्भरता से उनका तात्पर्य यह था कि बेसिक स्कूल इस सीमा तक स्वावलंबी हो जाएँ कि अध्यापकों का वेतन विद्यालयों में बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचकर दिया जा सके।इसलिए आरंभ में बुनियादी शिक्षा के समर्थकों का बहुत बड़ा वर्ग इस बात की आशा करने लगा कि यदि बुनियादी शिक्षा के लिए समुचित वातावरण पैदा किया जाए तो इसका अधिक मात्रा में खर्च निकल जाएगा और अवशेष खर्च सरकार दे देगी जिससे बेसिक स्कूल दक्षतापूर्वक चल सकेंगे। किंतु अनुभव से यह अनुमान गलत सिद्ध हुआ।
बुनियादी शिक्षा को सार्वभौम बनाने के प्रश्न को यथार्थ के स्तर पर सोचना चाहिए। भारत ने समाजवादी आदर्शवाले समाज की स्थापना का संकल्प किया है। ऐसे समाज की अनिवार्य बातों में से एक यह है कि इसके सभी सदस्य सुशिक्षित हों ताकि वे सामान्य हित के लिए अधिक से अधिक योगदान कर सकें और अपने सम्मिलित प्रयत्न का जो फल हो उससे उचित रूप से लाभ उठा सकें। इसलिए कम से कम समय के अंदर सार्वभौम, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षाप्रदान का प्रबंध सबसे पहले होना चाहिए।परंपरागत सिद्धांतों पर ही काम कर रहे बेसिक स्कूलों को कम से कम अनिवार्य शर्तों की पूर्ति करते हुए सच्चे बेसिक स्कूल बनाना चाहिए। जिन विद्यालयों का पूर्ण विकास नहीं हो सका है उनको अधिक से अधिक सहायता देनी चाहिए ताकि वे आदर्श बेसिक स्कूल बन सकें और दूसरे उनका अनुकरण करें। बुनियादी शिक्षा के विस्तार को लगातार बढ़ाते रहें। साधारण विद्यालयों को बेसिक स्कूलों में बदलें और नए बेसिक स्कूल खोलें। अधिकांश प्रदेश बेसिक स्कूलों की संख्या को प्रतिवर्ष कम से कम 5 प्रतिशत तो बढ़ा हो सकते हैं।
बेसिक स्कूल की शैक्षिक योजना को सुचारु रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापकों की शैक्षिक पृष्ठभूमि उच्च कोटि की हो और वे अपने कार्य में प्रवीण हों। प्रारंभिक विद्यालयों के लिए अध्यापक तैयार करनेवाली सभी प्रशिक्षण सस्याएँ बेसिक ढंग की होनी चाहिए। प्रत्येक प्रदेश के प्रत्येक जिले में एक आदर्श प्रशिक्षण विद्यालय स्थापित किया जाए। इस प्रशिक्षण विद्यालय के साथ चार पाँच वेसिक स्कूल संलग्न होने चाहिए। इस केंद्र में पर्याप्त रूप से अध्यापक एवं उपकरण हों और बुनियादी शिक्षा का संपूर्ण कार्यक्रम इसी के द्वारा पूरा किया जाए। 1938 में बुनियादी शिक्षा की मौलिक योजना जाकिर हुसैन समिति ने तैयार की थी। इसमें यह सिफारिश की गई थी कि प्रत्येक प्रांत में शिक्षा की एक समिति स्थापित होनी चाहिए जिसके कार्यों में बुनियादी शिक्षा में खोज और संगठन का कार्य भी सम्मिलित किया जाए। प्रत्येक प्रदेश में स्थापित शिक्षा की प्रदेशीय संस्था (स्टेट इंस्टिट्यूट अन्य एजुकेशन) बुनियादी शिक्षा की विविध समस्याओं का अध्ययन तथा अनुसंधान कार्य करे। राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (नैशनल काउंसिल अ०व एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग) को राष्ट्रीय स्तर के महत्व वाली समस्याओं का अनुसंधान करना चाहिए। अनुसंधान द्वारा समवाय (कोरीलेशन) पद्धति को अध्यापक के लिए सुबोध तथा सुगम बना दिया जाए। बुनियादी शिक्षा की प्रगति उसके उद्देश्यों के अनुसार हो रही है ताकि इन विधियों और उपकरणों से बुनियादी शिक्षा के अध्याक एवं प्रशासक आवश्यकतानुसार लाभ उठा सके, बेसिक स्कूलों के लिए अध्यापक तैयार करनेवाली प्रशिक्षण संस्थाओं की समस्याओं की ओर ध्यान देना ताकि प्रशिक्षण कार्यक्रम को प्रभावशाली बनाया जा सके और छात्राध्यापकों के लिए उपयुक्त साहित्य की तैयारी पर ध्यान देना इत्यादि ।
संर्दभ ग्रंथ
चर्तुवेदी डॉ. शुभ्रा, मलिक डॉ. शशि, (2017), शिक्षा के दार्शनिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य, राखी प्रकाशन शर्मा डॉ. आर.ए., शिक्षा के दार्शनिक एवं सामाजिक मूल आधार, आर.लाल बुक डिपो
2.महात्मा गाँधी का दार्शनिक चिंतन एवं शैक्षिक विचारधाराः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इनकी प्रासंगिकता
्रस्तावना
महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। इनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 ईस्वी को सुदामापुरी, पोरबंदर, गुजरात राज्य में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचंद गांधी और माता का नाम पुतलीबाई था। मोहनदास इनकी सबसे छोटी संतान थे। इनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे। इनकी माता धार्मिक विचारों वाली महिला थी। गांधी जी को अपने परिवार में वैश्णव धर्म की शिक्षा मिली थी। अपने बचपन में ही इन्होंने मनुस्मृति का एक अनुवाद पढ़ा डाला था। गीता तो ये नित्य पढ़ते थे। इंग्लैंड में इन्होंने ‘बाइबिल’ और ‘लाइट ऑफ एशिया’ पड़ी थी और श्रीमती एनी बेसेंट का सत्संग किया था। उन पर श्रवण कुमार एवं हरिश्चन्द्र नाटक का भी बड़ा प्रभाव पड़ा। और उनके मन में हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी होने की प्रबल उत्कंठा थी। इन सब के आधार पर इनके शैक्षिक, धार्मिक एवं दार्शनिक विचार बने। पर मूल रूप में इनका जीवन दर्शन गीता पर आधरित है। गीता को यह ‘गीता माता’ कहते थे। राष्ट्रीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी न केवल एक महान महात्मा, विचारक, देश प्रेमी, समाज सुधारक और राजनीतिज्ञ थे वरन् एक महान शिक्षा शास्त्री भी थे। गांधी जी ने भारतीय शिक्षा को एक नवीन ज्योति प्रदान की है।
[ महात्मा गांधी का जीवन दर्शन ]
महात्मा गांधी के जीवन दर्शन का आधार भारतीय आदर्शवाद है। यह ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे और ईश्वर को सर्वव्यापक मानते थे। गांधीजी कहते थे कि ईश्वर अंतिम सत्य है, सर्वोच्च शासक है, सत्य है, प्रेम है, नैतिकता है और जीवन का स्त्रोत है। अपने अंतिम घड़ी में भी यह राम कहकर मरे। महात्मा गांधी एक महान दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री तथा प्रयोगकर्ता थे। महात्मा गांधी आधुनिक राष्ट्र के जनक कहे जाते हैं। उनके जीवन दर्शन के मोटे तौर पर चार मुख्य तत्वों में बांटा जा सकता है- सत्य, अहिंसा, निर्भयता, सत्याग्रह।
1. सत्य : गांधी जी ने कहा कि सत्य सत् शब्द से बना है। सत् का अर्थ है अस्ति-सत्य अर्थात अस्तित्व। सत्य के बिना दूसरी किसी चीज की हस्ती ही नहीं है जहाँ सत्य नहीं है वहां शुद्ध ज्ञान की संभावना नहीं है, इससे स्पष्ट है कि सत्य जीवन का एक अंग ही नहीं है बल्कि वह महान से भी महान हैं। सत्य में शिवम और सुंदरम दोनों ही निहित हैं। सत्य के माध्यम से ईश्वर को जाना जा सकता है, गांधी जी के लिए सत्य और ईश्वर एक ही है। सामान्यतः सत्य का अर्थ सत्य बोलना समझा जाता है, लेकिन गांधी जी के लिए इसका अर्थ व्यापक है। उनके शब्दों में, “विचार में सत्य, भाषण में सत्य और कार्य में सत्य होना चाहिए।” गांधी जी का संपूर्ण जीवन सत्य के लिए एक प्रयोग था।
2. अहिंसा: गांधी जी के दार्शनिक विचारधारा का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व अहिंसा है। हिंसा से पूर्ण मुक्ति ही अहिंसा है। अर्थात घृणा, क्रोध, भय, अहंकार और कुभावना से मुक्ति। अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। गांधी जी का कहना है कि अहिंसा सब धर्मों का मूल है। सत्य को अहिंसा के माध्यम से ही जा सकता है। सत्य और अहिंसा का इतना घनिष्ठ संबंध है कि इन दोनों को एक दूसरे से अलग करना असंभव है। यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। अहिंसा अपने सक्रिय रूप में जीवन के प्रति सद्भावना है। यह शुद्ध प्रेम है। इसका अर्थ है-जानबूझकर कष्ट सहन करना।
3. सत्याग्रह: सत्याग्रह अहिंसा का व्यावहारिक प्रयोग है। यह दूसरों को दुःख देने के बजाय स्वयं दुःख झेल कर न्याय प्राप्त करने की विधि है। सत्याग्रह का अर्थ है- ‘सत्य पर अडिग रहना। गांधी जी के अनुसार इसका अर्थ है अन्याय और असत्य का अहिंसा पूर्ण साधनों से मुकाबला करना, सब से प्रेम करना और सब के लिए कठिनाइयों को सहन करना। विरोधी को कष्ट देकर नहीं, वरन अपने को कष्ट देकर सत्य का समर्थन करना। गांधी जी के अनुसार सच्चा सत्याग्रही वही है जो सत्य, अहिंसा, ब्रहमचर्य, अभय, अस्तेय तथा और संचय में विश्वास रखता हो सत्याग्रही का जीवन कठोर अनुशासन पर आधारित होना चाहिए। यह सिद्धान्त सत्य तथा प्रेम पर आधारित है।
4. निर्भयता: निर्भयता गाधी जी के जीवन दर्शन का चौथा महत्वपर्ण तत्व है। गांधी जी को अहिंसा नकारात्मक ना होकर सकारात्मक थी जिसके अंतर्गत तथा सत्याग्रह दो तत्व सम्मिलित थे। सत्य और अहिंसा के लिए निर्भरता आवश्यक है। जो व्यक्ति निर्भीक नहीं है वह सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों का पालन नहीं कर सकता। अर्थात व्यक्ति को सब प्रकार के भयों से मुक्त होना चाहिए। गांधी जी ने निर्भयता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है- निर्भयता का अर्थ है समस्त वाहय भयों से मुक्ति, जैसे बीमारी का भय, शारीरिक चोट और मृत्यु का भय, संपति विहीन होने का भय, अपने परिजनों के मृत्यु का भय, प्रतिष्ठा खोने का भय, अनुचित कार्य करने का भय इत्यादि।
गांधी जी का शैक्षिक दर्शन
शिक्षा जगत में गांधी जी शिक्षाशास्त्री के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी शिक्षा योजना बुनियादी शिक्षा, नई तालीम, प्रारंभिक शिक्षा योजना और वर्धा योजना के नाम से प्रसिद्ध है। गांधी जी के शिक्षा दर्शन का इनके जीवन दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। गांधी का शिक्षा दर्शन सामान्य दर्शन का क्रियात्मक रूप है। उनका शिक्षा दर्शन जीवशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान तथा दर्शन पर आधारित है। गांधी जी शिक्षा को व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे और मनुष्य की किसी भी प्रकार की भौतिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति के लिए इसे इतना ही आवश्यक मानते थे, जितना बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध। गांधी जी के शिक्षा दर्शन में प्राचीन भारतीय विचारों तथा आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा सिद्धान्तों का अनुपम समन्वय है इनके शिक्षा दर्शन पर जहाँ गीता दर्शन का प्रभाव पड़ा है वहीं रस्किन बॉन्ड की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आन टू द लास्ट’ तथा टॉलस्टॉय की प्रसिद्ध पुस्तक द किंगडम ऑफ गॉड इज विद यू’ तथा ग्रीन के विचारों का प्रभाव पड़ा है ग्रीन के अनुसार गांधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का निष्पक्ष अध्ययन इस बात को सिद्ध करता है कि वे पूरब में शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार के प्रारंभिक बिन्दु है। अविनाशलिंगम के शब्दों में “बुनियादी शिक्षा हमारे राष्ट्रपिता का अंतिम और संभवतः महानतम् उपहार है।” डॉक्टर एम. एस. पटेल के कथनानुसार, ‘गाँधी जी के शिक्षा दर्शन की व्यवस्था प्रकृतिवादी है, उनके उददेश्य आदर्शवादी हैं, और उनकी विधि एवं कार्यक्रम प्रयोजन वादी है। अपने इन्हीं विविध रूपों के कारण वे स्वतंत्रता, आत्मानुभूति, आध्यात्मिक, विकास करके सीखने और जीवानुभूतियों द्वारा शिक्षा में विश्वास रखते थे इन्होंने एक निश्चित आयु तक शिक्षा की व्यवस्था निःशुल्क तथा अनिवार्य रूप से करने पर बल दिया यह मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के पक्षधर थे और अंग्रेजी को मानसिक दासता बढ़ाने वाली भाषा मानते थे। यह शिक्षा के द्वारा मनुष्य को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे और उसे अपनी आजीविका कमाने योग्य बनाना चाहते थे इसलिए इन्होंने हस्तकौशलो की शिक्षा पर विशेष बल दिया और बालक को सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता, निवारण, कायिक श्रम, सर्वधर्म सम्भाव और विनम्रता की और प्रवृत्त करने पर बल दिया। गांधी जी के शिक्षा दर्शन में भौतिकवादी दृष्टिकोण भी दिखाई पडता है। एल. एन. गुप्ता के शब्दों में- “गांधीजी इस संसार से भागकर शांति प्राप्त करने के लिए संदेश नहीं देते, बल्कि संसार में रहकर निष्काम कर्म के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिए, सत्यबोध के लिए कहते है और प्रत्येक बालक में बचपन से ही अपनी रोटी कमाने के लिए आदत बनाए रखने तथा शिक्षा में श्रम तथा वैज्ञानिक ज्ञान को साथ जोड़ने की क्षमता की बात करते है।” और उद्योग के माध्यम से क्रिया द्वारा शिक्षा दी जाने की बात करते है जिससे सभी विषयों में एकीकरण तथा समन्वय स्थापित किया जा सके। गांधीजी केवल साक्षरता को शिक्षा नही मानते थे। इनके अपने शब्दों में-“साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न प्रारम्भ। यह केवल एक साधन है जिसके द्वारा पुरूष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।” गांधीजी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए स्वंय लिखा है-“शिक्षा से मेरा तात्पर्य, बालक और मनुष्य के मन, शरीर तथा आत्मा के सर्वांगीण तथा सर्वोत्कृष्ट विकास से है।” गांधीजी के विचार से मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। इनका तर्क था कि जब तक मनुष्य को शारीरिक दुर्बलता,मानसिक तनाव, आर्थिक अभाव और राजनीतिक दासता से मुक्ति नहीं मिलती तब तो वह आध्यात्मिक मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता यही कारण है कि गांधीजी शिक्षा द्वारा मनुष्य के शरीर तथा मन और आत्मा का उच्चतम विकास करना चाहते थे गांधीजी इस युग के सबसे महान व्यक्तित्व थे। मानव जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है। जिसमें उन्होंने कार्य न किया हो। गांधीजी ने किसी नए शिक्षा दर्शन का प्रतिपादन नहीं किया अपितु प्राचीन भारतीय दर्शन को व्यवहारिक रूप दिया है, इसे व्यवहारिक रूप देने में इनकी अपनी मौलिकता है इसलिए उसे आज गांधी दर्शन के रूप में जाना जाता है।
गांधीजी की शिक्षा के विभिन्न पक्ष
गांधीजी ने जन शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, स्वी शिक्षा, सह शिक्षा, धर्म शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षा के संदर्भ में भी अपने विचार प्रकट किए।
जन शिक्षा के संदर्भ में गांधीजी ने कहा- “जनसाधारण की अशिक्षा भारत का पाप और कलंक है। अतः इसका अंत किया जाना अनिवार्य है।” गांधीजी के समय में भारत में लगभग 13 प्रतिशत लोग साक्षर थे। विद्यालय शिक्षा के अभाव में उनमें न तो आत्म विश्वास था और न ही जागरूकता थी तब हम प्रगति कैसे करते? हमारा भविष्य कैसा होता? इन्होनें सामाजिक नेताओं, सामाजिक संगठनों और विद्यार्थियों को गांव में जाने के लिए जनसाधारण को शिक्षित करने के लिए आह्वान किया। गांधीजी के शब्दों में- “मेरे विचार में दुखी होने का तथा शर्म करने का जो कारण है वह निरक्षरता उतनी नही है जितनी की अज्ञानता।” अतः प्रौढ़ शिक्षा के लिए मुझे एक सावधानी से चुने गए पाठ्यक्रम द्वारा अज्ञानता दूर करने के लिए दूसरा कार्यक्रम रखना चाहिए जिससे गांव के प्रौढ व्यक्तियों को शिक्षित किया जाए। जनसाधारण की निरक्षरता भारत के लिए पाप और लज्जा है। स्त्री और पुरूष दोनों को शिक्षित करना चाहिए।
गांधीजी स्त्री को ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना मानते थे और स्त्री और पुरूष की शिक्षा में केवल इतना ही अंतर करते थे कि स्त्रियों को गृह कार्य के अतिरिक्त शिक्षा दी जाए। स्त्री को समाज में पुरुषों के बराबर स्थान दिया जाए। गांधीजी स्त्रियों को ‘पति की गुड़िया’ तथा शादी करके ‘बच्चों को पालने’ का काम नहीं देना चाहते थे व उन्हें लड़ने वाली वीरांगनाएँ, समाज की अग्रदूतियां तथा संसार का उद्धार करने वाली देवियां बनाना चाहते थे।
सह शिक्षा के सम्बन्ध में गांधीजी ने 8 वर्ष की अवस्था तक लड़के-लड़कियों को साथ पढ़ाई जाने की बात की और यदि अच्छी सुविधा और वातावरण हो तो 16 वर्ष की आयु तक उन्हें साथ-साथ पढ़ाया जा सकता है कि बात कही। उन्होंने कहा सह शिक्षा से कोई हानि नहीं है। भारत की जनता यौन समस्या पर मत विभिन्नता रखती है। जबकि सह शिक्षा की समस्या को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक सभी पहलुओं से देखा जाना चाहिए और उसी के अनुसार कार्यक्रम बनाना चाहिए।
महात्मा गांधी एक हिन्दू थे अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने अपने को सनातनी हिन्दू कहा है और वेद, उपनिशद, गीता, महाभारत आदि से उन्होंने बहुत कुछ शिक्षा ली है। उन्होंने सभी धर्मों का एक अपना अर्थ लिया है। जिस कारण हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई को एक अर्थी समझा है। इन्होंने सभी धर्मों के सामान्य सिद्धान्तों और नैतिक शिक्षा को पाठ्यचर्या में स्थान दिया है। उन्होंने प्रेम की उपयोगिता को भी स्वीकार किया है। मानव सेवा को यह सबसे बडा धर्म मानते थे और बच्चों को मानव सेवा की और प्रवृत्त करने को ही वास्तविक धर्म शिक्षा कहते थे।
गांधीजी राष्ट्रपिता कहलाते थे क्योंकि उन्होंने राष्ट्र का उद्घार किया है उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की घोषणा की और सतत् प्रयत्न करते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा को राष्ट्र की भाषा में दिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने ब्रिटिश शासकों द्वारा संचालित शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं कहा क्योंकि उस शिक्षा का आधार विदेशी संस्कृति थी जिसने भारतीय संस्कृति को हमसे दूर कर दिया था। विदेशी संस्कृति से हृदय और हाथ का विकास नहीं होता बल्कि बुद्धि का विकास होता है। राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने गांव की कृषि तथा उसके व्यवसाय को रखा ताकि नव राष्ट्र का निर्माण किया जा सके और अपने संस्कृति की सुरक्षा की जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा सभी प्रदेशों में समान रूप से होने से पूरे राष्ट्र में एकता स्थापित करेगी। इस प्रकार सभ्यता का एक नया रूप नव भारतीय राष्ट्र का दिया जायेगा इससे स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायता मिलेगी एसी राष्ट्रीय शिक्षा सभी के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य होने की बात गांधीजी ने कही।
3.गांधीजी के दार्शनिक, शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन और वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता:-
गांधीजी युगपुरूष थे और सर्वोदय सिद्धान्त के प्रतिपादक रहे इनका प्रभाव न केवल भारत तक सीमित रहा अपितु अन्य देशों पर भी इनका प्रभाव पड़ा। यह मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करते थे। इन्होंने काले-गोरे के वर्ण भेद को समाप्त करने के लिए आंदोलन किया। ऊंच-नीच की वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए आंदोलन किया। धर्म संकीर्णता के स्थान पर सर्वधर्म समभाव के लिए प्रयत्न किया और शिक्षा के माध्यम से शोषण रहित, अहिंसामूलक, स्वावलंबी, राष्ट्रप्रेम की भावनाओं से परिपूर्ण समाज की स्थापना पर बल दिया।
आधुनिक युग में गांधी दर्शन का काफी प्रचार हो रहा है गांधी जी ने अपने विचारों को धार्मिक ग्रंथो के अनुशीलन, मनन और मंथन के बाद प्रकट किया है। आज के समय में मनुष्य असत्य और हिंसा की ओर प्रवृत्त हुआ है और चारों और भय से घिरा हुआ है। परन्तु फिर भी वह सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और निर्भयता की ओर लौटने को आतुर है अपनी पुरानी संस्कृति को अपनाकर अपने जीवन का उद्धार करना चाहता है। गांधी जी के दार्शनिक सिद्धांत वर्तमान समय में भी उतने ही प्रासंगिक है। जितने कि उस समय पर थे।
गांधी जी ने भारतीय शिक्षा को भारतीय बनाने की बात पर बल दिया उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य विस्तृत किए और शिक्षा की पाठ्यचर्या विस्तृत की। गांधी जी ने क्रिया के विकास के लिए साधनों की खोज की और व्यवहार में उनको प्रयुक्त किया, इन प्रयोगों के द्वारा गांधी जी ने हाथ, हृदय और मस्तिष्क (हेंड, हार्ट एंड हेड) को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जिससे पूर्ण मानव को शिक्षित किया जा सके। मार्जरी साइक्स के अनुसार, “गांधी जी के बुनियादी शिक्षा के नाम पर आज देश में जिन शैक्षिक रीति-नीतियों का प्रतिपादन किया जा रहा है वह वस्तुतः अच्छे प्रणाली और शिक्षण विधि से संबंध रखती है और किसी भी अच्छे कहे जाने वाले विद्यालय के लिए अनिवार्य है।”
जन शिक्षा और स्त्री शिक्षा के संदर्भ में गांधी जी के विचार और कार्य दोनों ही वडे अमूल्य हैं इसके लिए देश हमेशा इनका ऋणी रहेगा। दरिद्रता के दानव के चंगुल में फंसे हुए हमारे देश के लिए बुनियादी शिक्षा एक अनुपम वरदान है। यह ना तो प्रचलित शिक्षा के समान पुस्तकीय एवं अव्यवहारिक है और ना परीक्षा एवं पाठ्यक्रम की जंजीरों से जकड़ी हुई है। बुनियादी शिक्षा बालक की शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए यथेष्ट प्रयत्न करती है। बुनियादी शिक्षा की प्रधान विशेषता उसका ‘उत्पादन का सिद्धांत’ है जिससे बालक आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाना है। आचार्य कृपलानी ने तो यहां तक कह दिया है कि “बेसिक शिक्षा की योजना शिक्षा के क्षेत्र में गांधी जी की अंतिम मनः सृष्टि है।”
गांधी जी ने शिक्षण की प्राचीन विधियों के प्रयोग में बच्चों की सक्रिय साझेदारी
महात्मा गाँधी का दार्शनिक चिंतन पर बल दिया और शिक्षण विधि को उपयोगी बनाया इन्होंने सहसंबंध विधि के द्वारा सीखने पर बल दिया अनुशासन के संबंध में इन्होंने आत्मानुशासन रहने की बात कही और प्रभावात्मक विधि को अपनाने पर बल दिया। यह चाहते थे कि बच्चे ब्रह्मचर्य का पालन करें। आधुनिक युग में बच्चों से ब्रह्मचर्य के पालन की अपेक्षा तो नही की जा सकती परन्तु विद्यालयों के नियमों का पालन और समाज सेवा कार्य में भाग लेने की व आत्मनिर्भर बनने की अपेक्षा की जा सकती है। गांधीजी विद्यालयों को ऐसी कार्यशालाओं के रूप में विकसित करना चाहते थे जहां शिक्षक और शिक्षार्थी तभी श्रम करें और हस्त कौशल के माध्यम से वस्तुओं का निर्माण कर सकें। जिससे विद्यालयों का व्यय निकले और छात्र आत्मनिर्भर बने। गांधी जी विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्रों के रूप में विकसित करना चाहते थे लेकिन गांधी जी का यह विचार कोरी कल्पना सावित हुआ। बेसिक स्कूलों में कच्चे माल की बर्बादी हुई। छोटे-छोटे हाथों से विक्रय योग्य उत्पादन की आशा करना युक्तिसंगत नहीं लगता देश को आज राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता है। परंतु गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का अध्ययन करने के बाद हम निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि महात्मा गांधी इस युग के महान शिक्षा शास्त्री हैं। महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा से निरक्षरता की समस्या हल होने के संदर्भ में टी. एन. सीक्वेरा ने अपने शब्दों में लिखा- “वर्धा-योजना को भारत की निरक्षरता की महान् समस्या का समाधान करने के लिए जब तक किए जाने वाले प्रयासों में सबसे साहसी और संपूर्ण माना जा सकता है।
संदर्भ-ग्रंव सूची
1. दुबे, मनीष एवं विभा दुबे (2010): उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक, प्रथम संस्करण, इलाहाबादः शारदा पुस्तक भवन। 2. नारायण लक्ष्मी, प्रदीप कुमार एवं नीता सिन्हा (2009-10); उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक, प्रथम संस्करण, इलाहाबादः न्यू कैलाश प्रकाशन। 3. पचौरी गिरीश एवं रितु पचौरी (2013); उभरते भारतीय समाज में शिक्षक की भूमिका, मेरठः आर. लाल बुक डिपो। 4. पाठक, पी.डी.; भारतीय शिक्षा और उसकी समस्याएं, प्रथम संस्करण, आगराः श्री विनोद पुस्तक मंदिर। 5. तात, रमन बिहारी (2007), शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धांत, सोलहवां संस्करण, मेरठ रस्तोगी पब्लिकेशन्स ।5. वालिया, जे. एस. (2009), उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षा, जालंधरः अहिम पॉल पब्लिशर्स।
4.गाँधी जी का शिक्षा दर्शन
महात्मा गाँधी आधुनिक राष्ट्र के जनक कहे जाते हैं गांधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे वे सत्य को सार्वभौमिक एवं परम सत्ता स्वीकार करते थे उनके अनुसार सत्य ही ब्रह्म है। महात्मा गाँधी जी के जीवन दर्शन ने भारतीय जीवन तथा समाज में क्रांति को जन्म दिया वास्तविकता की प्रविष्टि पर गाँधीजी के विचार सराहनीय हैं। उनका यह मानना था कि सामाजिक विकास के लिए शिक्षा का एक महत्वपूर्ण योगदान होता है। महात्मा गांधी अपने युग के महान व्यक्ति थे और उन्होंने मानव जीवन तथा शिक्षा के सभी पक्षों को प्रभावित किया है उन्होंने ‘साबरमती आश्रम’, तथा ‘सेवाग्राम’ आश्रम की स्थापना की वह सत्य, प्रेम, अहिंसा, न्याय तथा सबके लिए समानता पर आधारित एक आध्यात्मिक तथा समरूप समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने गीता दर्शन को आज के परिपेक्ष्य में देखने, समझने का प्रवास किया और इसे आज की भाषा में लोगों को समझने तथा उसे उनके जीवन में उतारने का प्रयास किया है।
गाँधी जी का दर्शन जीवन मूल्य और उनके स्वयं के अनुकरण में अलंकृत है। गाँधीजी भारतीय संस्कृति एवं भारतीय परंपरा के एक महान पुरुष माने जाते हैं। उनका शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है उनके अनुसार शिक्षा दर्शन का सम्बन्ध कर्म योग, कर्म फल और आत्मा की अमरता का मानवीय दृष्टिकोण हैद्य गाँधीजी ने भारत वर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित दूसरों से शिक्षा को मुक्त करने तथा उससे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने की आवश्यकता पर बल दिया हैद्य उन्होंने शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर गहन चिंतन किया और अनेक पुस्तकें लिखी। गाँधीजी ने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। शिक्षा को बालक के शरीर, मन, हृदय तथा आत्मा का समरूप विकास करना चाहिए।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय गाँधीजी ने सबसे पहले बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी इसे बर्घा योजना के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अपने शिक्षा दर्शन में बुनियादी शिक्षा को महत्व दिया है उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए। जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। उनकी शैक्षिक विचारधारा उनके सामान्य दर्शन का काव्यात्मक रूप है। उनका शिक्षा दर्शन, जीव विज्ञान, समाज विज्ञान, मनोविज्ञान तथा दर्शन पर आधारित हैद्य उनका मानना था कि मेरे प्रिय भारत में विद्यार्थियों को स्वावलम्बी बनने की शिक्षा दी जाएद्य
गाँधीजी के शिक्षा दर्शन के कुछ आधारभूत सिद्धांत जो इस प्रकार हैं। 7 से 14 वर्ष की आयु के बालकों के लिए शिक्षा निशुल्क अनिवार्य तथा सार्वभौमिक होनी चाहिए। निर्देशन का माध्यम बालक की मातृभाषा होनी चाहिए।
उनके अनुसार शिक्षा के मूल्यों को अनुभव में ही खोजना चाहिए। वह चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक में व्यवहार कुशलता का आना आवश्यक है। उनका मानना है कि जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करें, मन और इंद्वियों को वश में रखना ना सिखाये, निर्वाह का साधन ना बनाये तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ ना उप जाये उस शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना हो वह सच्ची शिक्षा नहीं है। उन्होंने स्त्री तथा पुरुष दोनों की शिक्षा के लिए योजना बनाई तथा उन्होंने जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा पर बल दिया।
अतः ऐसा माना जाता है कि महात्मा गांधी एक महान दार्शनिक थे उन्होंने दर्शनशास्त्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उनके साहित्य से यह पूर्णता स्पष्ट हो जाता है कि उनके प्रत्येक क्षण और प्राणों का हर स्पंदन एवं हृदय की प्रत्येक धड़कन समाज उत्थान के लिए समर्पित थी गाँधी जी ने हमेशा सेवा आत्मसाक्षात्कार की ही मोक्ष माना है। उनका मानना है कि आत्म साक्षात्कार का सर्वोत्तम साधन मानव सेवा है। वह यह भी कहते थे कि जब तक सच्चा जीवन जीना नहीं आता तब तक सारी पढ़ाई बेकार है। क्योंकि शिक्षा समाज की आवश्यकताओं परंपराओं, प्रयाओं में सहायक हैच अतः व्यक्ति शिक्षा द्वारा ही समाज में समायोजन करना सीखता है। इस प्रकार गाँधीजी की शिक्षा योजना भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए बहुत महत्वपूर्ण है उनका दर्शन व्यक्तित्व के साथ-साथ सामाजिक विकास में भी विश्वास करता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
डॉ. रेनू गुप्ता शिक्षा के दार्शनिक, समाजशास्त्रीय और आर्थिक आधार
डॉ. रामशकल पांडे विश्व के श्रेष्ठ शिक्षा शास्त्री
5.महात्मा गांधी का दार्शनिक चिंतन
1. प्रस्तावना
भारत के राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी (मोहनदास करमचंद गाँधी) (1869-1948)
आधुनिक भारत के महान जन नायक समाज सुधारक और नैतिक दार्शनिक थे। उनका जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर में हुआ। उन्होंने अपना व्यवसायिक जीवन 1891 में वैरिस्टर के रूप में प्रारंभ किया।
प्रथम विश्व युद्ध 1914-18 के बाद जब अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार का सिलसिला जारी रखा तो गाँधीजी ने अहिंसा पर बल देकर जनता के उग्र आन्दोलन को हिंसात्मक होने से बचाया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने पर अंग्रेजों ने भारत को युद्ध में धकेल दिया, और इसके लिए भारत की जनता की राय जानने की जरुरत भी नहीं समझी। इसके विरोध में गाँधीजी ने 1942 में प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चलाया। 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वाधीनता तो मिली परन्तु साथ ही भारत के दो टुकड़े हो गए। जिससे राष्ट्रीय एकता के पुजारी गाँधीजी के हृदय को गहरी ठेस पहुँची, उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और एकता का प्रयास जारी रखा। 30 जनवरी 1948 को एक कट्टर हिन्दू हत्यारे नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी।
गाँधी जी ने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के आधार पर मानवता को समाज के नव निर्माण की नई राह दिखाई। उनके विचार अनेक पुस्तकों, लेखों और प्रवचनों इत्यादि के रूप में बिखरे पड़े हैं। उन्होंने किसी नए ‘वाद’ को जन्म नहीं दिया उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया कि “गाँधीवाद” नाम की किसी विचारधारा का कोई अस्तित्व नहीं है
2. राजनीति और नैतिकता
प्रसिद्ध इतावली विचारक निकोलो मैकियावेली (1469-1527) ने राजनीति और नैतिकता के बीच दीवार खड़ी करते हुए यह तर्क दिया था कि यदि साध्य उचित हो तो साधन को अपने आप उचित मान मिल जायेगा। इसके विपरीत गाँधी जी ने राजनीति और नैतिकता के बीच पुल का निर्माण करते हुए यह तर्क दिया कि राजनीति के क्षेत्र में साधन और साध्य दोनों समान रूप से पवित्र होने चाहिए।
गाँधी जी ने राजनीति को आध्यात्मिक आधार देकर उसे स्वच्छ रखने का समर्थन किया। इसकी प्रेरणा उन्हें गोपाल ष्ण गोखले (1866-1915) से मिली। आध्यात्मिक, धार्मिक और नैतिक इन तीनों अभिव्यक्तियों गाँधीजी के लिए एक ही अर्थ का संकेत देती है। धर्म को उन्होंने कभी संकुचित अर्थ में नहीं लिया। उनकी ष्टि में विश्व के सभी धर्मों का सार तत्व एवं ध्येय एक जैसा था। गाँधी जी के अनुसार यह भौतिक संसार एवं इसकी चमक दमक नश्वर है। वे गीता के इस वचन पर विश्वास रखते ये “योगः कर्मसु कौशलम” (अर्थात कर्म में कुशलता ही योग है)। धर्म मनुष्य को निकम्मा रहना नहीं सिखाता बल्कि कर्मठ व्यक्ति ही धर्मनिष्ठ हो सकता है। गाँधी जी के शब्दों में “मेरी सत्य निष्ठा ही मुझे राजनीति के क्षेत्र में ले आई है और में तनिक भी संकोच किये बिना, परन्तु पूर्ण विनम्रता के साथ कह सकता हूँ, जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, वे धर्म का अर्थ ही नहीं जानते
3. सत्य और अहिंसा
अपनी जताम्कया ‘सत्य के प्रयोग’ (My Experiment with truth) के अंतर्गत गांधीजी ने लिखा है मेरे निरंतर अनुभव ने मुझे विश्वास दिला दिया है की सत्य से अलग कोई इश्वर नहीं है और सत्य की सिद्धि का एक मात्र उपाय अहिंसा है। अहिंसा की पूर्ण साधना से ही सत्य का पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है गांधीजी आगे कहते हैं विश्व के समस्त जीवों से प्रेम करो। धरती पर निम्नतम कोटि का प्राणी भी इश्वर का प्रतिरूप है। इसलिए वह तुम्हारे प्रेम का अधिकारी है। गांधीजी के लिए अहिंसा का सकारात्मक पक्ष मानव प्रेम है। अहिंसा वह सिद्धांत या नीति है जिसमे अपने विरोधी को प्रेम से जीता जा सकता है घृणा से या लड़ाई से नहीं।
अहिंसक की दृष्टि में ऐसा कोई भी घृणा का पात्र नहीं हो सकता, पापी भी नहीं हो सकता। गांधीजी बाइबल के इस वाक्य के अनुयायी थे “पाप से घृणा करो पापी से नहीं” (Hate the sin and not the sinner) यदि कोई पापी तुम्हारे संपर्क में आता है तो अपने चरित्र बल से उसे भी पाप से विमुख करके सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो।
गाँधी जी की दृष्टी में किसी को कष्ट पहुंचने का विचार या किसी का बुरा चाहना भी हिंसा है। किसी के प्रति घृणा या द्वेष की भावना रखना भी हिंसा है। गाँधी जी ने यह सिखाया की अहिंसा निर्बल व्यक्ति का आश्रय नहीं बल्कि शक्क्तिशाली का अस्त्र है। विरोधी की शक्ति से डर जाने या अत्याचार के विरुद्ध बल प्रयोग न कर पाने की स्थिति अहिंसा नहीं है। यह नैतिक दृष्टि से शक्तिशाली व्यक्ति या समूह का बल है। जो सत्य पर दृढ़ निष्ठा रखने से प्राप्त होती है।
अमेरिकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग के शब्दों में “आज के अत्यंत विनाशकारी अस्त्रों के युग में हमारे सामने दो ही रास्ते है- या तो हम अहिंसा को अपना लें, या फिर अपने अस्तित्व को ही मिट जाने दे।”
4. सत्याग्रह
सत्य और अहिंसा का अटूट सम्बन्ध ही सत्याग्रह के विचार को जन्म देता है वस्तुतः सत्याग्रह ही सामाजिक क्राति का गाँधीवादी तरीका है। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सत्य, आग्रह अर्थात सत्य पर अडिग रहना। सत्य क्या है इसके उत्तर में गांधीजी कहते हैं जब अहिंसा का पालन करते हुए मनुष्य अताम्शुद्धि कर लेता है तो उसकी अंतरात्मा ही सत्य का दर्पण बन जाती है। जब मनुष्य को यह विश्वास हो जाये की वह सत्य के मार्ग पर चल रहा है तब चाहे उसे जितनी भी बाधाएँ और यातनाएँ क्यों न सहन करनी पड़े अपने मार्ग से तनिक भी विचलित न होना सत्याग्रह है। सत्य की सिद्धि कठिन तो है परन्तु अंततः विजय उसकी होती है।
5. सविनय अवज्ञा
गांधीजी के अनुसार, मनुष्य मूलतः नैतिक प्राणी है इस दृष्टि से वह राज्य के आदेशों और कानूनों का पालन करने के लिए वहीं तक वाध्य है जहाँ तक ये नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हो जो कानून नैतिकता के सिद्धान्तों के विरुद्ध हो उसका विरोध करने के लिए गांधीजी ने ‘सविनय अवज्ञा’ का रास्ता दिखाया सविनय अवज्ञा का मूल अर्थ है ऐसे कानून का उलंघन जो स्वयं अन्यायपूर्ण हो अर्थात जब सरकार की किसी नीति पर विरोध प्रकट करने के लिए, या किसी राजनितिक सुधार की मांग पर सरकार का ध्यान केन्द्रित करने के उद्देश्य से कोई कानून तोड़ा जाता है तो उसे ही सविनय अवज्ञा कहा जाता है। गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा का विचार हेनरी डेविड थोरो (1817-62) से लिया थोरो ने तर्क किया था की जब अपनी ही सरकार अन्याय करने लगे तो जनता को उसका विरोध अवश्य करना चाहिए। बोरो ने कर चुकाने से इंकार करने पर जेल में रात बिताई थी। गाँधी जी ने अपने जीवन में इसका सार्थक प्रयोग भी कर दिखाया जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण 1932 का ‘नमक सत्याग्रह’ था। गाँधी जी के अनुसार सविनय अवज्ञा का ध्येय सत्ताधारियों का हृदय परिवर्तन करना है, उन्हें विवश करना नहीं।
6. स्वराज्य
गाँधी जी के अनुसार, स्वराज का पौधा उस देश में पनपता है, जिसकी जड़े अपनी परंपराओं से जुडी हो, परन्तु वह इन परंपराओं की त्रुटियों के प्रति भी सजग हों और दूसरों से अच्छी बातें सीखने को तैयार हों। स्वराज यह मांग करता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमारा अपना एक घर होना चाहिए जो हमें सुरक्षा प्रदान करे परन्तु उस घर की खिडकियों और दरवाजे खुले रखे जाएँ ताकि उसमे सब ओर से उत्तम विचारो की ताजी हवा आती रहे।
गांधीजी कहते थे “मैं ऐसे भारत के निर्माण का प्रयत्न करूँगा जिसमे निर्धन से निर्धन मनुष्य भी अनुभव करेगा कि यह मेरा अपना देश है और इसके निर्माण में मेरा पूरा हाथ है। सच्चा स्वराज तब आएगा जब कही भी सत्ता का दुरपयोग होने पर सब लोग उसका विरोध करना सीख जाएँगे और इसके लिए उपयुक्त क्षमता प्राप्त कर लेंगे।
7. सर्वोदय
स्वराज के साथ साथ गांधीजी ने सर्वोदय के आदर्श पर विशेष बल दिया सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय जिसे विनोवा भावे व जयप्रकाश नारायण ने आगे बढाया गांधीजी के अनुसार राज्य की नीव हिंसा पर टिकी है।
8. न्यासिता का सिद्धांत
इस सिद्धान्त के अनुसार जब तक मनुष्य सारे यांत्रिक साधनों के बिना काम चलाने में अभ्यस्त नहीं हो जाते और बड़े-बड़े उद्योगों, भारी मशीनों और बड़े बड़े व्यापर व्यवसायों को समाप्त नहीं किया जा सकता इसके लिए गांधीजी पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन की मांग करते हैं वे पूजिंपतियों से अपील करते हैं की वह अपनी निजी सम्पति को समाज की धरोहर समझे।
9. निष्कर्ष
गाँधी जी के सम्पूर्ण राजनीतिक चिंतन में अनेक विचारकों की छाप को देखा जा सकता है।
10. स्रोत
1. राजनीतिक चिंतन की रूपरेखा-ओम प्रकाश गावा
2. सत्य के साथ मेरे प्रयोग-एम. के. गाँधी
6.गांधी दर्शन में शिक्षा और शिक्षक
शैक्षिक रूप में दार्शनिक ना होते हुए भी महात्मा गांधी ने दर्शनशास्त्र के इतिहास में विशिष्ट और मूल्यवान योगदान दिया। यहां यह उल्लेख करना सर्वथा उचित है कि हमारे देश में दर्शन बौद्धिक और तार्किक विचार विमर्श की परिधि में संकुचित नहीं है बल्कि उसका जीवन में घनिष्ठ संबंध है। एतदर्थ सच ही कहा गया है कि भारत में दर्शन मात्र विचार मार्ग नहीं अपितु जीवन मार्ग है। जहां तक गांधीजी का संबंध है, यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उनका जीवन दार्शनिकता का जीवन है। प्राचीन ऋषियों एवं संतों की भाति उन्होंने दार्शनिक जीवन व्यतीत किया है। प्रोफेसर पीटी राजू ने सही लिखा है-यद्यपि महात्मा गांधी शैक्षिक रूप में दार्शनिक नहीं है, किंतु उनके जीवन और क्रियाकलापों के अध्ययन से भारत की नीति सिद्धांत को सही रूप में समझा जा सकता है। यद्यपि वे दार्शनिक विचारधारा को लिखित रूप में प्रस्तुत नहीं करते, किंतु उनका जीवन स्वयं में दार्शनिक मार्ग परिचायक है उनमें यह कथन चरितार्थ है कि भारतीय दर्शन जीवन का मार्ग का परिचायक है।
आज का मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक अनेक समस्याओं से घिरा रहता है। उसे सही निर्देश और परामर्श की आवश्यकता है जो उन्हीं लोगों से प्राप्त होगी जो महात्मा गांधी तथा अन्यो की भांति वास्तविक अर्थ में दार्शनिक हैं। गांधीजी वर्तमान शताब्दी के ‘महत्तम पुरुष’ थे। जीवित मनुष्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वे ‘शाश्वत विश्व मानव’ थे, आदर्शवादी और यथार्थवादी स्वप्न दृष्टा और कर्मशील व्यक्तित्व थे।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी उनके महत्व और वैशिष्ट्य को इन पंक्तियों में स्पष्ट किया है- ‘गांधी ने भारत की नियति को विश्व के साथ जोड़ने का कार्य किया। हमारे युग में उन्होंने ये प्रदर्शित किया कि मानव की आत्मा यदि दिव्य तेज से प्रज्जवलित हो तो वह अत्यधिक सशक्त शास्त्रों से अधिक शक्ति पूर्ण है। गांधीजी के लिए राजनीति के अवसर अथवा क्रियाकलाप नहीं। उन्होंने मनुष्य मात्र को नैतिक आचरण के उच्चतर स्तर पर उत्सित करने की कामना की।
युवा पीढ़ी भ्रष्टाचार से आक्रांत है। इस दुर्दशा के लिए वह उत्तरदाई नहीं। अनेक सामाजिक राजनीतिक आर्थिक तथा अंतरराष्ट्रीय कारणों से यह नैतिक अधोगति हुई है गांधीजी ने सादगी और स्वच्छता के द्वारा इन बुराइयों का मार्जन करने को कहा। इनके सीधे-साधे और स्वच्छ विचारों का पूरी तरह पालन नहीं भी किया जाए तो कम से कम उपभोग वाद से यथासंभव बचकर व्यक्ति अपना कल्याण कर सकता है। युवा पीढ़ी को गांधी जी के साध्य और साधन संबंधी विचारों का पालन करना चाहिए। इनके अनुसार, ‘साधन ही सब कुछ है। साधन और साध्य के बीच भिन्नता नहीं होनी चाहिए’ इस प्रकार उन्होंने साधन और साध्य को एक-दूसरे का पूरक बताया है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने आधुनिक पीढ़ी के लिए कर्तव्य पालन का संदेश दिया। अधिकार के बजाय हमें कर्तव्य का महत्व देना है। यदि हम अपने कर्तव्य का सही ढंग से पालन करें तो हमारे अधिकार स्वतः हमें प्राप्त होंगे। यदि हम कर्तव्यों की उपेक्षा कर अधिकार के पीछे दौड़ेगे तो यह केवल दिवास्वप्न होगाष्
गांधी जी ने सत्याग्रह का मंत्र दिया, किंतु साथ ही उसके सम्यक प्रयोग का भी निर्देशन किया। इस विचारधारा का आध्यात्मिक पक्ष है। शुद्ध लाभ के लिए सत्याग्रह का मार्ग अपनाना अनुचित है। ‘मैं हिंसा के मार्ग से विनाश की संभावना का विरोध करता हूं, यह आत्महत्या का मार्ग है और भारतीय जनता को इससे अपार क्षति होगी।
महात्मा जी ने अनुशासन और सहयोग को महत्व दिया। यदि विवाह को इस उच्चस्तर पर देखा जाए तो आज की अनेक समस्याओं का समाधान संभव है। इस प्रकार गांधी जी का दर्शन सामान्यऔर नैतिक दर्शन है जो आज के भौतिक और वैज्ञानिक युग में भी सार्थक है। उनके सभी विचारों को पूरी तरह पालन करना भले ही संभव नहीं है किंतु मावी पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को स्वस्य और सुखी बना सकती है। निराशावाद अनपेक्षित है युवा वर्ग अपने जीवन को महात्मा गांधी विचारों से प्रेरित होकर निराशा के कोहरे का समापन कर सकते है।
गांधीजी बाल केंद्रित शिक्षा पद्धति में विश्वास करते थे, न कि अध्यापक केंद्रित शिक्षा में। उनका कथन है ‘कि शिक्षक को बालक का मित्र परामर्शदाता और पथ -प्रदर्शक होना चाहिए, बालक के मनोभावों के प्रति उसकी प्रतिक्रिया एक विनम्र सहयोगी की माति होनी चाहिए। अध्यापक को समझना चाहिए कि ‘शिक्षण आनंद है धंधा नहीं। इस सूत्र वाक्य में शिक्षा दर्शन की संपूर्ण गहराई की थाह चित्रित है। क्योंकि जब शिक्षण धंधा बन जाता है तब धन-संग्रह की प्रवृत्ति शिक्षक पर हावी हो जाती है। जिसका उदाहरण वर्तमान में देखने को मिलता है। जिस प्रकार शिक्षण -प्रशिक्षण महाविद्यालयों में एक ही शिक्षक के अनेक महाविद्यालयों में अनुमोदन देखने को मिल रहे हैं। जिनका लक्ष्य शिक्षा सेवा नहीं है, वरन धन संग्रह है। आज का शिक्षक गुरु परंपरा भूलकर धन में आनंद, शक्ति और प्रतिष्ठा की तलाश करने लगता है। जो वहां है ही नहीं, जब धन संग्रह के इस दोष से शिक्षक ही बेखबर होगा तो शिक्षार्थी के इस दोष का परिहार कौन करेगा? यह निर्विवाद है कि धन संग्रही शिक्षक समाज में सम्मान पाने के अधिकारी नहीं है। गांधीजी का विचार है कि जब शिक्षक के जीवन का तुच्छ लक्ष्य होगा और कर्तव्य कर्म की उपेक्षा होगी तो शिक्षक बिना कुछ किए ही हमेशा थका-हारा, उदास व निराशा रहेगा। इन सभी के निदान का सही उपचार है ‘आदर्श लक्ष्य और सृजन आनंद।
पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़ देना भावों का उदात्तन कर देना और संकल्प को लोक संग्रह का पुट दे देना शिक्षक को महानतम कार्य है। शिक्षक का आदर्श जीवन ही शिक्षार्थी के लिए अपने आप में उत्कृष्ट शिक्षा है। जैसा शिक्षक होगा वैसा ही शिक्षार्थी बनेगा और समाज भी। आदर्श शिक्षक के मन में जीवन का संगीत गुंजन करता है उसकी बुद्धि सृजन का आलिंगन करती है और उसका हृदय में सर्व अर्पण की धुन होती है।
गांधी जी के दर्शन अनुसार शिक्षक को कैमरामैन होने के बजाय चित्रकार बनना होगा और अपनी शिक्षण तूलिका से विद्यार्थियों के भविष्य में खिलते हुए रंग भरने होंगे। गांधी की दृष्टि में आज के शिक्षक को गुरु होने का भ्रम हो गया है और गुरु की तरह सम्मान पाने को आतुर है, बेचैन है। पर यह सम्मान उसे नही मिल पाता है, तब उसे ईमानदारी से विचार करना होगा कि गुरु बनने के लिए साघना की आवश्यकता है। केवल नेत्र बंद करके केवल सूचनाओं का वाहक बनने से सम्मान नहीं मिलने वाला है। शिक्षक को जागृत होना होगा जब तक वह जागेगा नहीं तब तक अपने विद्यार्थियों की आत्मा को कैसे जगा सकता है, जो जागा-जागा रहता है वही गुरु है।
आत्म साक्षात्कारी गुरु ही अपने शिक्षार्थियों का कल्याण करने में सक्षम हो सकता है। उनके व्यक्तित्व को महामंडित कर सकता है। आज आवश्यक हो गया है कि शिक्षक अपनी हैसियत पहचाने, या तो वह सम्मान पाने की आकांक्षा छोड़ दे, या गुरु होने की क्षमता प्राप्त कर लें इसके अलावा दूसरा विकल्प उसके सम्मुख नहीं है।
शिक्षण संस्थाएं कारखाना बन गई हैं। जहां शिक्षकों द्वारा मोटी धनराशि लेकर व्यक्ति को ढालने का प्रयास जारी है। शिक्षक नौकर हो गया है। व्यवसाई बन गया है। इस वास्तविकता का अनुभव शिक्षक को भी है, पर सब कुछ जानते हुए भी झूठ बोल रहा है, और यह झूठ ही उसके पतन का मूल कारण है।
गांधीजी का मानना था कि आज की आधुनिक शिक्षा में शिक्षक को विनम्र होना पड़ेगा। विनम्नता इसके पहले विद्यार्थी का गुणधर्म था। उस समय शिक्षक अविनम्र और अपने किताबी ज्ञान के घमंड में अकड़ा रहता था। उसका कक्षा पर, छात्रों पर वर्चस्व था। पर आज के शिक्षक को आदर-सम्मान का विचार छोड़ कर प्रेम के, स्नेह के विचार पर आना होगा। मित्र-वत आचरण करना होगा। पहले का विचार था, कि जो विनम्र है वही सीख सकता है, किंतु आज का विचार यह भी है कि जो विनम्र है वही सिखा सकता है। जिस दिन सिखाने वाला विनम्र हो जाएगा तो सीखने वाला भी विनम्र हो जाएगा। पुराना शिक्षक अहम केंद्रित था। चरण स्पर्श कराने से लेकर सब प्रकार से नई पीढ़ी को झुकने का कार्य कर रहा था। अब यह संभव नहीं है। अब विचार ठहर नहीं सकता, क्योंकि नए ज्ञान विज्ञान के प्रकाश में आज का शिक्षार्थी विद्रोही हो रहा है। पुरानी शिक्षण व्यवस्था हां कहना सिखाती हैं, आज की शिक्षण व्यवस्था कब, क्यों, कैसे पर जोर देती है। पहले शिक्षा बंद तालाब थी। आज प्रवाहमान नदी बन गई है। जो जीवंत शिक्षा और शिक्षक के लिए आवश्यक है। आज का शिक्षक का कार्य है जीवंत प्रश्नों के उत्तर की तलाश करना। जब जीवन्त प्रश्न खड़ा होता है तो भीतर से क्षकक्षोरता है, तो फिर ज्ञान के क्षेत्र में क्राति आ जाती है, और कुछ नया घटने लगता है। आज का शिक्षक अतीत में अर्जित सूचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाकर दायित्व से मुक्त होना चाहता है। अभिनव सृजन के बजाय पुरानी और नई पीढ़ी मे दुरभि संधि कराना चाहता है। आज की परिस्थिति में शिक्षक केंद्र पर ना होकर शिक्षार्थी केंद्र पर है। तेजी से बदलते परिवेश में शिक्षक को बदलना होगा अन्यथा भविष्य में शिक्षक और शिक्षार्थी के दो वर्ग बन जाएंगे इनके बीच संघर्ष होगा जैसे पूंजीपतियों और मजदूरों के बीच संघर्ष चल रहा है।
यह संघर्ष आरंभ हो चुका है शिक्षक अनुभव भी कर रहा है कि कहीं ना कहीं खोट है, तभी उसके प्रति आदर सम्मान घट रहा है। आज संभावनाएं उदघ्भावनाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं। इसी वैज्ञानिक युग में ज्ञान का दिन प्रति विस्मयकारी विस्फोट हो रहा है। आज जो नवीन है पुराना हो जाएगा।
इस जमाने में 20 वर्ष पूर्व का शिक्षक विद्यार्थी से पीछे छूट गया है, उसका पूरा ज्ञान आउट ऑफ डेट हो गया है। आज की शिक्षा का यही सत्य है। शिक्षा के क्षेत्र में उठ रही समस्याओं के नये समाधान का तरीका ढूंढना होगा।
संदर्भ-सूची
यंग इंडिया, 21 जनवरी 1926.
प्रोफेसर. डी. एन. दत्ता, दी फिलॉसफी ऑफ महात्मा गांधी, यूनिवर्सिटी आफ कोलकाता,
1968. पृ. 23. विनय गोपाल रे, गाधियन एथिक्स, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1950. पृ. 50. द माइंड ऑफ महात्मा गांधी, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद-14. पृ. 177.
प्रबुद्ध भारत, वॉल्यूम 101 अगस्त, 1996 पृष्ठ 460. लात रमन बिहारी, पॅलोड सुनीता (2012) वैश्विक चिन्तन एवं प्रयोग, पब्लिकेशन आर लाल बुक डिपो, मेरठ, पृ. 293-311
बालिया जे., स. (2010): उदीयमान भारतीय समाज में शिक्काक, पब्लिकेशन अहीम पात
पब्लिशर्श, जालन्धर, पृ. 570
Reviewed by 1 user
-
- by: Alisha
- 3 weeks ago
Your content is full of detailing… I love this website because it is very helpful for me .. thank-you Gyan treasure 🙏
Leave feedback about this